गर्मी की तपिश में मन को सुकून, शरीर को ठंडक देनेवाले 118 साल पुराने रूह अफजा की दिलचस्प कहानी


शरबत जिहाद से शुरू हुआ विवाद, अब धर्म और राजनीति तक पहुंचा!




दिल्ली की गलियों में 118 साल पहले शुरू हुए रूह अफजा की कहानी दिलचस्प है। मन को सुकून, शरीर को ठंडक देने वाले इस शरबत की मिठास गर्मियों में सुकून और तरोताजा कर देती थी। 
रूह अफजा न सिर्फ अपने स्वाद से देश और दुनिया पहचान रखता है, बल्कि भारत और पाकिस्तान की साझा विरासत का प्रतीक भी है। आइए, जानते हैं इस लाल शरबत की दिलचस्प कहानी, जिसने दिलों को जीता और बंटवारे को भी मात दी...


एक हकीम का सपना

साल 1906, दिल्ली की गलियों में भीषण गर्मी, लाल कुआं बाजार में हकीम हफीज अब्दुल मजीद का छोटा सा दवाखाना था, जिसका नाम था हमदर्द। गर्मी से परेशान लोग डिहाइड्रेशन और थकान की शिकायत लेकर आते थे। हकीम साहब ने सोचा, क्यों न एक ऐसी दवा बनाई जाए जो शरीर को ठंडक दे और पोषण भी। इस तरह यूनानी चिकित्सा पद्धति और ज्ञान से 1907 में हकीम ने फल, जड़ी-बूटियां, गुलाब, केवड़ा और खसखस को मिलाकर एक गाढ़ा लाल सिरप तैयार किया। जिसका नाम रखा- रूह अफजा, रूह यानि आत्मा ओर अफजा मतलब ताजगी देने वाला, यह दवा धीरे-धीरे लोगों की पसंदीदा शरबत बन गई। लोग इसे बोतलों में भरकर ले जाने लगे।



रूह अफजा का अनोखा मिश्रण

रूह अफजा केवल स्वाद के लिए नहीं, बल्कि इसमें मौजूद तत्व भी इसे खास बनाते हैं। इसमें चंदन, गुलाब जल, केवड़ा, पुदीना, नींबू, खरबूजे के बीज जैसे प्राकृतिक घटक होते हैं, जो शरीर को ठंडक पहुंचाते हैं। इसे पानी, दूध या आइसक्रीम के साथ मिलाकर पिया जा सकता है और यह गर्मी के मौसम में लू और डिहाइड्रेशन से राहत दिलाता है।

लोकप्रियता का सफर

रूह अफजा की लोकप्रियता लगातार बढ़ी तो हकीम हफीज अब्दुल मजीद को लगा कि इसकी पैकिंग और लेबलिंग करानी जाए. उस दौर में मुंबई में मिर्जा नूर अहमद ये काम करते थे। 1910 में रूह अफजा के लिए रंग-बिरंगा लेबल बनाया, जो मुंबई के बोल्टन प्रेस में छपा, खास बात ये है कि हमदर्द कंपनी ने आज तक इस लेबल को बदला नहीं और यह आज भी जस का तस है। रूह अफजा जल्दी ही हर घर की पसंद बन गया, इफ्तार की मेज हो या गर्मी की दोपहर, इसका गिलास हर किसी को भाने लगा। 1920 तक हकीम मजीद की छोटी सी दुकान 'हमदर्द दवाखाना' एक बड़ा प्रोडक्शन हाउस में तब्दील हो चुका था।



बंटवारा और नई उड़ान

1922 में हकीम मजीद का निधन हो गया। इसके बाद उनकी पत्नी रबीआ बेगम और उनके बेटों ने हमदर्द की कमान संभाली। 1947 में भारत-पाकिस्तान बंटवारे ने कई कहानियां बांट दीं, लेकिन रूह अफजा को नहीं। बड़े बेटे अब्दुल हमीद ने भारत में हमदर्द को संभाला, जबकि छोटे बेटे मोहम्मद सईद पाकिस्तान चले गए। कराची में उन्होंने नया कारखाना शुरू किया. पाकिस्तान में वक्फ बोर्ड की संपत्ति पर ही हमदर्द कंपनी स्थापित की गई। पाकिस्तान में केवड़े की कमी के चलते सईद ने गुलेबहार और सिट्रोन फूलों का इस्तेमाल किया, जिसने वहां भी इसकी लोकप्रियता बढ़ाई. दोनों देशों में रूह अफजा की चमक बरकरार रही। 
बंटवारे ने रूह अफजा को नुकसान के बजाय फायदा पहुंचाया. दोनों देशों में इसकी मांग बढ़ी. यह इफ्तार पार्टियों से लेकर गर्मियों की महफिलों तक हर जगह छा गया. बाद में बांग्लादेश में भी हमदर्द की शाखा खुली, जिसे 1971 में वहां के लोगों को सौंप दिया गया।

रूह अफजा से जुड़ी अनूठी बातें

रूह अफजा आज 40 से ज्यादा देशों में बिकता है। फालूदा, लस्सी, शरबत या कुल्फी, हर रूप में यह लोगों का पसंदीदा है। इसकी खासियत सिर्फ स्वाद नहीं, बल्कि भारत-पाकिस्तान की साझा संस्कृति भी है। इसकी लोकप्रियता का ये हाल था कि अल जज़ीरा की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 1979 में अफगान शरणार्थी इसे बिना पानी मिलाए सीधा पी जाते थे, और कुछ लोग तो कार के इंजन को ठंडा करने के लिए भी इसका इस्तेमाल करते थे!

रूह अफजा को लेकर विवाद 

2024 में रूह अफजा पर उसके स्वास्थ्य संबंधी दावों को लेकर भी सवाल उठे। खासतौर पर बांग्लादेश में यह आरोप लगा कि इसके लेबल पर दिखाए गए हर्बल और फ्रूट एक्सट्रैक्ट्स की पुष्टि नहीं हो सकी. इसके अलावा, इसके अधिक शुगर कंटेंट को लेकर डॉक्टरों ने सावधानी बरतने की सलाह दी है। 2022 में हरियाणा के मानेसर स्थित हमदर्द फैक्ट्री में 50% हिंदू आरक्षण की मांग को लेकर स्थानीय स्तर पर विवाद हुआ। आरोप लगे कि फैक्ट्री की ज़मीन हिंदू किसानों की थी और वहां हिंदुओं के साथ भेदभाव किया जा रहा है। हालांकि हमदर्द ने इन आरोपों से साफ इनकार किया।



 'शरबत जिहाद' का आरोप

हाल ही में रूह अफजा उस समय विवादों में पड़ गया बाबा रामदेव ने दावा किया कि हमदर्द (रूह अफजा की कंपनी, जो एक वक्फ संस्था है) की कमाई मस्जिदों और मदरसों में जाती है। उन्होंने इसे 'शरबत जिहाद' कहकर तंज कसा और अपने गुलाब शरबत को बढ़ावा दिया। उन्होंने कहा, "शरबत के नाम पर एक कंपनी है जो शरबत तो देती है लेकिन शरबत से जो पैसा मिलता है, उससे मदरसे और मस्जिदें बनवाती है, बनवाने दीजिए, उनका वो मज़हब है।" 

"लेकिन आप यदि वो शरबत पिएंगे तो मस्जिद और मदरसे बनेंगे और पतंजलि का गुलाब का शरबत पीते हैं, तो गुरुकुल बनेंगे। ये शरबत जिहाद, लव जिहाद, वोट जिहाद चल रहा है ना? ऐसे शरबत जिहाद भी चल रहा है, आपको ये शरबत जिहाद से बचना है।"

रामदेव के बयान से मची हलचल

रामदेव के इस बयान ने सोशल मीडिया से लेकर टीवी डिबेट्स तक हलचल मचा दी। हमदर्द 1948 से वक्फ के तौर पर काम करता है, जिसका मकसद दान और सामाजिक कार्यों को बढ़ावा देना है। हमदर्द ने भी इस पर सफाई दी कि उनकी संस्था एक वक्फ ट्रस्ट जरूर है, लेकिन उनके अस्पताल, यूनिवर्सिटी और सेवाएं सभी समुदायों के लिए खुली हैं। लेकिन ये सफाई बाबा रामदेव का नाम लेकर नहीं दी गई है।

इस मामले में बवाल और बढ़ गया है। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने योग गुरु बाबा रामदेव के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई है। रामदेव के शरबत ‘जेहाद’ वाले बयान को दिग्विजय ने देश में धार्मिक सद्भाव के माहौल को बिगाड़ने वाला बताया। उन्होंने भोपाल के स्थानीय थाने में एक शिकायत दर्ज कराई और उनके खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई की मांग की है।



निष्कर्ष:

रामदेव को शरबत जिहाद जैसे शब्दों से इसलिये भी परहेज़ करना चाहिए था कि उनके अपने उत्पाद दुनिया के कई मुस्लिम देशों में भी बिक रहे हैं। जिस मदरसे व मस्जिद से उन्हें चिढ़ है उसी मस्जिद व मदरसे से शिक्षित मौलवी मौलानाओं को अपने मार्केटिंग सहयोगी के तौर पर साथ लेकर वे अपने उत्पाद की मार्केटिंग ईरान सहित अन्य मुस्लिम देशों में करवाते देखे जा चुके हैं। परन्तु दरअसल रामदेव के बार बार अनेक प्रोडक्ट फ़ेल होने के कारण और कई बार उनके उत्पाद की विश्वसनीयता संदिग्ध होने के चलते यहाँ तक कि भारतीय सेना द्वारा उनके कई उत्पादों का सेम्पल फ़ेल किये जाने के बाद उनके पतञ्जलि ब्रांड की बिक्री बंद होने लगी है।
उनके उत्पाद के शोरूम तो हर जगह मिल जायेंगे परन्तु ग्राहक कहीं नज़र नहीं आता। इसीलिये वे निराशा व कुंठा का शिकार होकर पहले तो विदेशी बनाम स्वदेशी का हौव्वा खड़ा कर लोगों में देशभक्ति की भावना जगा कर अपना व्यवसाय खड़ा करने की कोशिश में थे। फिर एलोपैथी बनाम आयुर्वेद का विवाद खड़ा कर उसका लाभ उठाना चाहा जिसपर अदालत में उन्हें मुंह की खानी पड़ी।



आख़िरकार इसी कुंठा व निराशा के शिकार रामदेव ने सुप्रसिद्ध स्वदेशी कम्पनी हमदर्द के विरुद्ध साम्प्रदायिकता का कार्ड खेलते हुये इसे 'शरबत जिहाद ' तक बता डाला। और यहीं से इनकी हक़ीक़त उजागर हो गयी कि इन्हें अंग्रेज़ी या विदेशी से ही नहीं बल्कि स्वदेशी आयुर्वेदिक कम्पनी से भी आपत्ति है और उसमें भी इन्हें बुराई ही नज़र आती है ? वास्तविकता यह है कि झूठ कुंठा व अत्यधिक महत्वाकांक्षा पर खड़ा रामदेव का साम्राज्य अब लड़खड़ाने लगा है। स्वयं रामदेव का व्यक्तित्व अब योगगुरु के बजाय शुद्ध व्यवसायी बाबा का बन चुका है। इसी लड़खड़ाते व्यवसायिक साम्राज्य को बचाने के लिये ही रामदेव ने यह साम्प्रदायिक कार्ड खेला है।
उन्हें उम्मीद तो थी कि 'शरबत जिहाद ' कहने से उन्हें देश के बहुसंख्यक समाज का समर्थन मिल जायेगा परन्तु उसी बहुसंख्यक समाज ने रामदेव की इस बदकलामी का ऐसा मुंहतोड़ जवाब दिया कि ख़बरों के अनुसार रूह अफ़्ज़ा की बिक्री कई गुना बढ़ गयी। और रूह अफजा का मुफ्त में करोड़ों का प्रचार भी हो गया। अपने डूबते हुये व्यवसायिक साम्राज्य को बचाने के लिये ही रामदेव को साम्प्रदायिक कार्ड का सहारा लेना पड़ा और शीतल पेय में भी 'शरबत जिहाद' जैसी बेहूदा शब्दावली गढ़नी पड़ी।
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